आज के इस दौर में, जब शब्दों की कीमत कम और स्याही की ताकत घटती जा रही है, तब भी कुछ आवाज़ें हैं जो सच्चाई की रफ़्तार को रोक नहीं पातीं। कलम का सर जब क़त्ल की धमकी से कांपता है, तो यह सिर्फ एक लेखन‑साधन नहीं, बल्कि समाज की ज़िम्मेदारी का प्रतीक बन जाता है।
सच्चाई की रफ़्तार, भय की दीवार
भ्रष्टाचार की गली में जहाँ जिम्मेदार अपने हाथ धोते हैं, वहाँ सच लिखना एक बग़ावत जैसा है। हर शब्द एक धागा है जो अंधेरे को उजागर करता है, परन्तु इस धागे को खींचने वाले अक्सर खुद को खतरे में डालते हैं। हां मैंने कर ही दिया इस कलम का सर कलम कमबख्त डरने लगी थी इस जमाने में सच लिखने से
– यह वाक्य आज के लेखकों की मनोदशा को बयां करता है।
समाज के दुश्मनों की नज़र
भ्रष्टाचार की दुनिया में, जो लोग अपने क़दमों को साफ़ रखना चाहते हैं, वे अक्सर “समाज के दुश्मन” के रूप में लिहाज़ किए जाते हैं। उनका लिखना, उनका सच, उन लोगों को असहज कर देता है जो अपने काले कारनामों को छुपा कर रखना चाहते हैं। परन्तु यह असहजता ही तो परिवर्तन की पहली सीढ़ी है।
जिम्मेदारी का पुन जागरण
जब हम लिखते हैं, तो हम सिर्फ कागज़ पर शब्द नहीं छोड़ते, बल्कि एक सामाजिक दायित्व को पूरा करते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखना, उसकी गहरी जड़ें खोदना, और जनता को जागरूक करना – यह एक ऐसा कार्य है जिसमें जोखिम तो है, परन्तु परिणाम भी उतना ही बड़ा है।
भले ही आज की स्याही में डर का रंग घुला हो, परन्तु सच्चाई की रोशनी को बुझाने की कोशिशें कभी सफल नहीं होंगी। हमें अपनी कलम को दृढ़ रखना है, क्योंकि जब तक हम लिखते रहेंगे, भ्रष्टाचार की अंधेरी गली में उजाला फूटता रहेगा।
_सत्य की राह पर चलने वाले हर लेखक को सलाम, जो डर के साये में भी अपनी आवाज़ को बुलंद रखते हैं।_









